
राजनीति/इंडियामिक्स बिहार की राजनीति एक बार फिर उस मोड़ पर पहुंच चुकी है, जहां सत्ता का समीकरण तो बन गया है, पर भरोसे की नींव डांवाडोल है। बीजेपी ने आखिरकार फिर से नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकार कर लिया है, लेकिन यह निर्णय राजनीतिक मजबूरी से ज्यादा कुछ नहीं माना जा रहा। पार्टी को यह भली-भांति पता है कि जनता और अपने कार्यकर्ताओं के बीच नीतीश की लोकप्रियता पहले जैसी नहीं रही। चुनाव परिणामों और गठबंधन की पुनर्संरचना के बाद बीजेपी ने रणनीतिक रूप से यह फैसला किया कि फिलहाल नीतीश को मुख्यमंत्री बनाकर वह प्रदेश की स्थिरता और प्रशासनिक नियंत्रण दोनों को साध सकती है।
दिलचस्प बात यह है कि इस बार हालात पहले जैसे नहीं हैं। नीतीश कुमार भले ही मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे रहें, लेकिन उनकी राजनीतिक ताकत अब सीमित दायरे में सिमटती जा रही है। पिछले दो वर्षों में उन्होंने बार-बार गठबंधन की दिशा बदली, जिससे उनकी विश्वसनीयता में गिरावट आई। बीजेपी अब यह स्थिति दोहराना नहीं चाहती कि सत्ता में रहकर भी उसकी नीति और प्रशासनिक निर्णय किसी और के हिसाब से तय हों। इसलिए नई सरकार में मंत्री पदों का बंटवारा इस तरीके से होगा कि सत्ता का असली संचालन बीजेपी के हाथों में रहे। गृह मंत्रालय को लेकर कोई संशय नहीं है कि बीजेपी इसे अपने पास रखना चाहेगी। बिहार में कानून-व्यवस्था पिछले कई वर्षों से सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा रहा है। अपराध और भ्रष्टाचार पर लगातार उठ रही आवाजों के बीच बीजेपी यह संदेश देना चाहती है कि वह शासन को सख्ती और जवाबदेही के साथ चलाएगी। गृह विभाग उनके पास रहने से न सिर्फ पुलिस व्यवस्था पर सीधा नियंत्रण स्थापित होगा बल्कि विपक्ष को भी यह संदेश जाएगा कि अब निर्णय अकेले मुख्यमंत्री दफ्तर से नहीं होंगे। वित्त विभाग भी बीजेपी के नियंत्रण में आने की लगभग पूरी संभावना है। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का मानना है कि विकास योजनाओं और बजट आवंटन के ज़रिए सरकार की छवि बनती है, ऐसे में वित्त मंत्रालय पर नियंत्रण का मतलब है प्रशासनिक शक्ति पर पूर्ण पकड़। यह कदम नीति निर्धारण में बीजेपी को निर्णायक भूमिका दिलाएगा, जबकि नीतीश कुमार का दायरा सीमित रहेगा।
नगर विकास विभाग को लेकर भी बीजेपी विशेष रुचि दिखा रही है। नगरीय निकायों में विपक्ष का प्रभाव लगातार बढ़ा है और प्रधानमंत्री आवास योजना, स्मार्ट सिटी और स्वच्छ भारत जैसे केंद्र प्रायोजित कार्यक्रमों की जमीनी सच्चाई को लेकर सवाल उठते रहे। ऐसे में बीजेपी चाहती है कि इन योजनाओं की क्रियान्वयन प्रक्रिया उसके नियंत्रण में रहे ताकि वह शहरी वोट बैंक को साध सके। इसका एक अतिरिक्त लाभ यह भी होगा कि शहरी मतदाताओं के बीच उसकी पकड़ मजबूत हो सकेगी, जो 2029 के आम चुनाव के लिहाज से बेहद अहम होगा। शिक्षा, कृषि और ग्रामीण विकास जैसे विभागों में भी बीजेपी का प्रभाव बढ़ाने की मंशा साफ दिखती है। इन मंत्रालयों के माध्यम से सीधे जनता तक पहुंच बनाई जा सकती है। बीजेपी का मानना है कि विकास कार्यों का श्रेय लेने के लिए उसे सरकारी मशीनरी पर नियंत्रण रखना होगा। वहीं नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू के लिए ऐसे विभाग छोड़े जा सकते हैं जो राजनीतिक रूप से कम संवेदनशील हैं, जैसे पीएचईडी, परिवहन या उद्योग मंत्रालय।
इस पूरे समीकरण का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि बीजेपी अब “बड़े भाई” की भूमिका में है। पिछले कार्यकालों में जब नीतीश कुमार मजबूत स्थिति में थे, तब बीजेपी को उनके निर्णयों का अनुसरण करना पड़ता था। लेकिन इस बार परिस्थिति उलट है। विधानसभा में बीजेपी का संख्याबल नीतीश की पार्टी से ज्यादा है, और पार्टी के रणनीतिकार अब इस समीकरण को स्थायी सत्ता संतुलन के तौर पर बदलना चाहते हैं। नीतीश के पास सीमित विकल्प हैं: या तो वे गठबंधन की मजबूरी को स्वीकार करें, या फिर सत्ता से दूर रहने का जोखिम लें, जो फिलहाल उनके लिए संभव नहीं दिखता। बीजेपी केंद्र की राजनीति से भी इस निर्णय को जोड़कर देख रही है। बिहार आने वाले लोकसभा चुनावों में बेहद अहम भूमिका निभाता है। पार्टी चाहती है कि राज्य में ऐसा प्रशासनिक संदेश जाए जिससे मतदाता को लगे कि अब विकास, कानून-व्यवस्था और रोजगार जैसे मसले सरकार की प्राथमिकता में हैं। नीतीश कुमार की छवि को एक “समावेशी चेहरा” बनाकर रखा जा रहा है, लेकिन असली नियंत्रण बीजेपी के हाथ में रहेगा। राजनीतिक जानकारों का यह भी मानना है कि आने वाले महीनों में यदि हालात अनुकूल रहे तो पार्टी चरणबद्ध तरीके से नेतृत्व परिवर्तन की दिशा में कदम बढ़ा सकती है।
बीजेपी की यह नीति व्यावहारिक भी है और दीर्घकालिक भी। पार्टी नीतीश के अनुभव का उपयोग चाहती है लेकिन उनके प्रभाव को सीमित करने का पक्ष ले रही है। इस तरह वह सत्ता में स्थिरता और संगठनात्मक नियंत्रण, दोनों को साधने की कोशिश में है। नीतीश कुमार के लिए यह चरण राजनीतिक अस्तित्व का है: मुख्यमंत्री तो रहेंगे, पर पहले जैसी तवज्जो और निर्णय की स्वतंत्रता अब नहीं होगी। आने वाले हफ्तों में विभागों का बंटवारा हो जाएगा और उसी से स्पष्ट हो जाएगा कि सत्ता की असली बागडोर किसके हाथ में है। बिहार की राजनीति में यह अध्याय सिर्फ़ गठबंधन की कहानी नहीं बल्कि ताकत के पुनर्संतुलन का संकेत है। बीजेपी अब “सांझा सत्ता” नहीं बल्कि “संतुलित वर्चस्व” की ओर बढ़ रही है, और नीतीश कुमार को इस सच्चाई के साथ कदमताल करना ही होगा।

