
राजनीति/इंडियामिक्स उत्तर प्रदेश की राजनीति में समाजवादी पार्टी (सपा) दशकों से उस पार्टी के रूप में जानी जाती रही है, जिसे मुस्लिम और यादव गठजोड़ का मजबूत आधार मिला हुआ था। कहा जाता था कि एम-वाई यानी मुस्लिम-यादव समीकरण ही सपा की जीत की कुंजी है। मुलायम सिंह यादव के दौर में यह गठजोड़ बेहद मजबूत दिखता था। लेकिन वक्त के साथ इस संतुलन में बदलाव साफ दिख रहा है। आज सपा के अंदर और बाहर, दोनों ही जगह मुस्लिम समाज में यह चर्चा तेज है कि पार्टी में अब मुसलमानों की जगह केवल वोटर तक सीमित हो गई है, लीडरशिप में नहीं। मुस्लिम समाज में तेजी से यह धारणा बन रही है कि समाजवादी पार्टी का असली चरित्र यही है ’यादव मलाई खाएगा, ‘आजम’ जेल जाएगा’। यह बात कई जगह मुस्लिम मतदाताओं के बीच संवादों में दोहराई जा रही है, खासकर तब से जब आजम खान जैसे बड़े मुस्लिम नेता को पार्टी ने मुश्किल वक्त में अकेला छोड़ दिया। आजम खान, जिनका नाम कभी सपा के थिंक टैंक और मुस्लिम चेहरे के रूप में लिया जाता था, अब खुद और उनका परिवार कानूनी मुश्किलों में फंसा है, जबकि अखिलेश यादव या यादव परिवार से किसी ने खुलकर उनके समर्थन में एक मजबूत राजनीतिक रुख नहीं अपनाया। रमजान आलम, जो रामपुर के रहने वाले और आजम खान के पुराने समर्थक हैं, का कहना है, अखिलेश जी हमसे सिर्फ वोट चाहते हैं, हमारी आवाज नहीं। जब आजम साहब जेल में थे, तब उनकी पैरवी करने तक कोई यादव नेता नहीं आया। बस यादव मलाई खाए, यही सपा का फार्मूला है। इसी तरह, मुरादाबाद में एक मदरसे के प्रिंसिपल शकीलुर्रहमान ने कहा, अब मुसलमानों को इस्तेमाल की चीज नहीं बनना चाहिए। जो पार्टी हमारी बात नहीं सुनती, हमें नेतृत्व नहीं देती, उससे दूरी बनाना जरूरी है।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अखिलेश यादव की राजनीति फिलहाल यादवों के केंद्र में सिमट चुकी है। सपा के संगठनात्मक ढांचे से लेकर विधान परिषद, विधानसभा और पार्टी के प्रवक्ताओं तक, हर जगह यादव चेहरों का दबदबा साफ देखा जा सकता है। इससे मुस्लिम समाज में असंतोष लगातार बढ़ रहा है। एक समय था जब मुहम्मद आजम खान, नसीमुद्दीन सिद्दीकी, कैसर जहां या इक़बाल महमूद जैसे नेता पार्टी के रणनीतिक निर्णयों में शामिल होते थे, आज उस स्तर पर कोई प्रभावशाली मुस्लिम नेता नहीं दिखता। लखनऊ के एक राजनीतिक विश्लेषक, फैज़ुल हसन ने कहा, अखिलेश की चिंता मुस्लिम मतदाताओं की नहीं, बल्कि उनके वोट की है। उन्हें पता है कि बीजेपी के डर से मुसलमान कहीं न कहीं उनके पक्ष में मतदान कर देंगे। लेकिन अब यह रणनीति काम नहीं करेगी क्योंकि नया मुस्लिम वोटर डर नहीं, प्रतिनिधित्व देखना चाहता है।
दरअसल, बिहार में पिछले विधानसभा चुनाव में मुस्लिम मतदाता यह संकेत पहले ही दे चुके हैं। वहां मुस्लिम वोट बैंक ने तेजस्वी यादव की पार्टी राजद से दूरी बनाते हुए असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम को समर्थन देने की कोशिश की थी। ओवैसी की पार्टी को सीमांचल के कुछ क्षेत्रों में अच्छा वोट मिला, जो इस बात का संकेत था कि मुस्लिम समाज अब आवाज की राजनीति करना चाहता है, अंध समर्थन की नहीं। उसी तर्ज पर यूपी में भी अब मुसलमानों के भीतर यह सोच पनप रही है कि “मेरा वोट, तेरा अधिकार नहीं चलेगा।” यानी अब सपा को मुस्लिम समर्थन स्वतः नहीं मिलेगा, बल्कि उसे मेहनत कर भरोसा जीतना पड़ेगा। संभल के नौजवान मतदाता नदीम अंसारी कहते हैं, हम अब सिर्फ बीजेपी को हराने की रणनीति का हिस्सा नहीं बनेंगे। जो हमें हिस्सेदारी देगा, वही हमारा नेता होगा। अखिलेश जी ने आजम खान को छोड़कर बता दिया कि सत्ता में यादवों की सियासत ही असली प्राथमिकता है।
दूसरी तरफ, सपा से जुड़े कुछ नेताओं का मानना है कि पार्टी में अब भी मुसलमानों को भरपूर सम्मान दिया जा रहा है। सपा के पूर्व विधायक अनीस खां कहते हैं, पार्टी में मुस्लिम और यादव दोनों बराबर के साथी हैं। कुछ लोग जानबूझकर समाज में भ्रम फैलाने का काम कर रहे हैं। हालांकि, जमीनी हकीकत में कई मुस्लिम इलाके ऐसे हैं जहां यह असंतोष खुलकर दिख रहा है। गौरतलब है कि अखिलेश यादव ने पिछले कुछ वर्षों में भाजपा की हिंदुत्व राजनीति के मुकाबले अपने को धर्मनिरपेक्ष नेता के रूप में पेश करने की कोशिश की है। लेकिन भाजपा से वैचारिक टकराव के बावजूद, उन्होंने मुस्लिम प्रतिनिधित्व को उस स्तर पर जगह नहीं दी, जैसी उम्मीद की जाती थी। 2022 के चुनाव में कई प्रत्याशियों की सूची देखकर ही मुस्लिम समुदाय के भीतर यह सवाल उठा था कि क्यों सपा ने इतने कम मुस्लिम उम्मीदवार दिए? यही कारण है कि पार्टी की धार्मिक-सामाजिक संतुलन की छवि अब कमजोर होने लगी है। राजनीतिक परिदृश्य में यह भी देखा जा रहा है कि पश्चिम यूपी और पूर्वांचल में मुस्लिम मतदाता छोटे-छोटे दलों और नए चेहरों की ओर झुकने लगे हैं। सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) हो या फिर एआईएमआईएम, इन दलों ने मुसलमानों के बीच यह संदेश फैलाया है कि सत्ता में हिस्सेदारी के बिना समर्थन का कोई अर्थ नहीं है।
उत्तर प्रदेश के एक प्रमुख मुस्लिम बुद्धिजीवी, डॉ. जाहिद हुसैन का कहना है, मुलायम सिंह के दौर में सपा को मुसलमानों ने परिवार की तरह माना क्योंकि उन्हें लगता था कि उनकी सुरक्षा और सम्मान इसी पार्टी से सुरक्षित है। लेकिन अखिलेश के दौर में वह भरोसा दरकने लगा है। जब आजम खान जैसा नेता पार्टी में उपेक्षित हो सकता है तो आम मुसलमान की अपेक्षा कौन सुनेगा? कुल मिलाकर यूपी की राजनीति में मुस्लिम समाज अब निर्णायक रूप से यह सोचने लगा है कि उनका वोट किसी एक पार्टी का स्थायी अधिकार नहीं है। यह वही मानसिक बदलाव है जो बिहार में पहले दिखा था। मुस्लिम समाज अब नेतृत्व, युवाओं की भागीदारी और वास्तविक प्रतिनिधित्व की मांग कर रहा है। भाजपा से भय दिखाने की सियासत अब असर खोने लगी है। जो संदेश इस समय मुस्लिम समाज से निकल रहा है, वह सीधा और स्पष्ट है सिर्फ वोट नहीं, सम्मान और नेतृत्व चाहिए। और जब तक यह भावना बनी रहेगी, तब तक समाजवादी पार्टी जैसे दलों को आत्ममंथन करना ही पड़ेगा।

