
राजनीति/इंडियामिक्स महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम को संक्षेप में मनरेगा कहा जाता है। इसे पिछली कांग्रेस सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धियों में गिना जाता रहा है। ग्रामीण इलाकों में बेरोजगार परिवारों को हर साल कम से कम सौ दिन का गारंटी वाला रोजगार देने वाली यह योजना लाखों लोगों की जिंदगी में बदलाव लाई। चुनावी मंचों पर कांग्रेस के नेता इसकी सफलता का बखान करते हुए वोट हासिल करते रहे। लेकिन 2014 में नई सरकार के सत्ता में आने के बाद हालात बदल गए। कई पुरानी योजनाओं को समाप्त कर दिया गया या उनकी शक्ल बदल दी गई, पर मनरेगा को छुआ तक नहीं गया। यह योजना आज भी जारी है और ग्रामीण अर्थव्यवस्था का अहम हिस्सा बनी हुई है।
मनरेगा की शुरुआत 2005 में हुई थी। इसका मकसद ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी कम करना और रोजगार के अवसर पैदा करना था। योजना के तहत हर वयस्क को साल में सौ दिन का काम मिलना सुनिश्चित होता है। मजदूरी समय पर भुगतान की गारंटी दी जाती है। इससे न सिर्फ आय बढ़ी, बल्कि गांवों में सड़कें, तालाब, चेकडैम जैसी सुविधाएं भी बनीं। आंकड़े बताते हैं कि योजना शुरू होने के बाद करोड़ों परिवारों को लाभ मिला। खासकर सूखा प्रभावित इलाकों और पिछड़े राज्यों में इसका असर दिखा। कांग्रेस इसे अपनी विरासत मानती रही और विपक्ष में बैठकर भी इसका श्रेय लेने से नहीं चूकी।
लेकिन नई सरकार ने इसे जारी रखा। इसका कारण साफ था। ग्रामीण मतदाता इस योजना पर निर्भर हो चुके थे। इसे अचानक बंद करना राजनीतिक जोखिम भरा कदम होता। इसके बजाय सरकार ने इसमें बदलाव किए। बजट बढ़ाया गया, तकनीकी सुधार लाए गए। डिजिटल भुगतान को बढ़ावा दिया ताकि पारदर्शिता आए। फिर भी कांग्रेस इसे अपनी सफलता बताती रही। वह कहती है कि मनरेगा के बिना ग्रामीण भारत की हालत खराब हो जाती। यह बहस जारी रही। सरकार ने मौन रहना बेहतर समझा।अब हाल ही में बड़ा बदलाव आया। सरकार ने मनरेगा का नाम बदल दिया। नया नाम विकसित भारत के लिए रोजगार और जीविका मिशन रखा गया। इसे संक्षेप में बीवीजीआरजेएलएम कहा जा रहा है। यह नाम बदलाव महज शब्दों का खेल नहीं लगता। इसके पीछे गहरी रणनीति नजर आती है। पुराना नाम महात्मा गांधी से जुड़ा था, जो कांग्रेस की छवि से मिलता था। नया नाम देश के विकास के लक्ष्य से जोड़ता है। इससे योजना को नई सरकार की पहल के रूप में पेश किया जा सकता है। कांग्रेस को यह कदम नागवार गुजरा। उन्होंने विरोध जताया और नाम बदलाव को राजनीतिक चाल बताया।
इस बदलाव का राजनीतिक महत्व बहुत बड़ा है। मनरेगा ग्रामीण वोट बैंक का आधार बनी हुई है। उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्यों में लाखों परिवार इससे जुड़े हैं। चुनाव नजदीक आते ही यह मुद्दा गरमाता जाता है। कांग्रेस इसे अपनी उपलब्धि बताकर सत्ता पर सवार होने की कोशिश करती है। नई सरकार इसे अपनाकर ग्रामीण असंतोष से बच रही है। नाम बदलाव से पुरानी सरकार का ठप्पा हट जाता है। योजना अब विकास के नए दौर से जुड़ जाती है। लेकिन क्या नाम बदलने से हकीकत बदल जाएगी? आलोचक कहते हैं कि यह महज ब्रांडिंग है। योजना की कमियां वही रहेंगी। भ्रष्टाचार, देरी से भुगतान, काम की गुणवत्ता जैसे सवाल बरकरार हैं।देखें तो मनरेगा की सफलता आधी-अधूरी रही। एक ओर जहां रोजगार मिला, वहीं दूसरी ओर फंड की कमी बनी रही। कई राज्यों में काम के आवेदन लंबित पड़े रहते हैं। कोविड महामारी के दौरान योजना की मांग बढ़ी। लाखों प्रवासी मजदूरों ने गांव लौटकर इसमें शरण ली। सरकार ने तब बजट बढ़ाया। लेकिन सामान्य दिनों में चुनौतियां लौट आईं। नया नाम बदलाव इन्हीं चुनौतियों से निपटने का प्रयास हो सकता है। मिशन के रूप में इसे मजबूत बनाया जा सकता है। ग्रामीणों को कौशल प्रशिक्षण देकर स्थायी रोजगार की ओर ले जाया जा सकता है।
कांग्रेस का विरोध स्वाभाविक है। वे इसे अपनी विरासत पर हमला मानते हैं। विपक्षी नेता सभाओं में पुराने नाम का जाप करते हैं। सोशल मीडिया पर बहस छिड़ गई है। समर्थक कहते हैं कि नाम बदलाव विकास का प्रतीक है। विरोधी इसे सियासी चाल बताते हैं। हकीकत में यह दोनों का खेल है। योजना को जीवित रखना दोनों पक्षों के हित में है। ग्रामीण मतदाता इसका फायदा उठाते रहेंगे। आने वाले चुनावों में यह मुद्दा फिर उभरेगा। कौन इसका श्रेय लेगा, यह समय बताएगा।बहरहाल, मनरेगा या इसका नया रूप ग्रामीण भारत की रीढ़ है। नाम कुछ भी हो, इसका असर जमीनी स्तर पर दिखना चाहिए। अगर मिशन के तहत सुधार होते हैं, तो यह वाकई विकसित भारत का आधार बनेगा। अन्यथा बहस जारी रहेगी। सरकार को पारदर्शिता बढ़ानी होगी। ग्रामीणों को समय पर काम और मजदूरी मिले। तभी योजना की सार्थकता सिद्ध होगी। राजनीतिक दलों को इसे सियासत से ऊपर उठाना चाहिए। ग्रामीण कल्याण ही असली लक्ष्य होना चाहिए।

