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Reading: भारत की कूटनीति से 60 साल बाद मॉरीशस को मिला चागोस द्वीपसमूह
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INDIAMIX > दुनिया > भारत की कूटनीति से 60 साल बाद मॉरीशस को मिला चागोस द्वीपसमूह
दुनिया

भारत की कूटनीति से 60 साल बाद मॉरीशस को मिला चागोस द्वीपसमूह

Mauritius got Chagos Islands after 60 years due to Indian diplomacy

SANJAY SAXENA
Last updated: 26/05/2025 10:47 PM
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SANJAY SAXENA
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8 Min Read
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Mauritius got Chagos Islands after 60 years due to Indian diplomacy

न्यूज़ डेस्क/इंडियामिक्स चागोस द्वीपसमूह पर ब्रिटेन के 60 साल पुराने कब्जे का अंत एक ऐसे ऐतिहासिक क्षण के रूप में दर्ज हुआ है, जिसने औपनिवेशिक शासन की उन स्याह परतों को मिटा दिया है, जो आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी विश्व के कई हिस्सों पर छाई हुई थीं। 22 मई 2025 को ब्रिटेन और मॉरीशस के प्रधानमंत्रियों  कीर स्टार्मर और नवीन रामगुलाम  ने एक डिजिटल समारोह में उस समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिससे चागोस द्वीपसमूह, जिसमें डिएगो गार्सिया जैसे रणनीतिक और सैन्य दृष्टिकोण से अहम ठिकाने शामिल हैं, आधिकारिक तौर पर मॉरीशस को सौंप दिए गए। इस सौदे के पीछे एक और नाम बिना किसी शोरगुल के खड़ा रहा  भारत। खासतौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भूमिका इस पूरे कूटनीतिक घटनाक्रम में बेहद अहम और निर्णायक रही, हालांकि वह हमेशा पर्दे के पीछे ही रहे।

चागोस द्वीपसमूह की कहानी केवल भूगोल या रणनीति की नहीं, बल्कि न्याय, संप्रभुता और आत्मसम्मान की भी है। 1965 में जब मॉरीशस को ब्रिटेन से स्वतंत्रता मिलने वाली थी, ठीक उसी वक्त ब्रिटेन ने इस द्वीपसमूह को मॉरीशस से अलग कर लिया और अपने अधीन रखा। इसके बाद हजारों स्थानीय निवासियों को जबरन उनके घरों से बेदखल किया गया और डिएगो गार्सिया द्वीप पर अमेरिका के लिए एक विशाल सैन्य अड्डा बनाया गया, जो आज भी अमेरिका के वैश्विक रणनीतिक ढांचे का अहम हिस्सा है। तब से मॉरीशस इस ज़मीन की वापसी की लड़ाई लड़ रहा था, जो अब जाकर सफल हुई है।

इस समझौते के तहत ब्रिटेन ने द्वीपसमूह की संप्रभुता मॉरीशस को लौटा दी है, लेकिन डिएगो गार्सिया को ब्रिटेन 99 साल की लीज़ पर अमेरिका के साथ मिलकर इस्तेमाल करता रहेगा। इसके बदले मॉरीशस को हर साल लगभग 101 मिलियन पाउंड की राशि दी जाएगी। यह व्यवस्था उस सैन्य संतुलन को भी बनाए रखेगी, जो हिंद महासागर में अमेरिका और उसके सहयोगियों के लिए रणनीतिक दृष्टि से जरूरी माना जाता है। लेकिन इस पूरे घटनाक्रम का सबसे बड़ा पहलू यह है कि आखिरकार उपनिवेशवाद के एक गहरे जख्म पर मरहम लगाया गया है।

यह समझौता यूं ही नहीं हुआ। इसके पीछे कई सालों की बातचीत, अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हुई बहसें और चुपचाप की गई कूटनीति शामिल है। भारत की भूमिका यहां खासतौर पर ध्यान देने योग्य है। 2019 में जब अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने इस पूरे विवाद पर अपनी परामर्शी राय दी और ब्रिटेन के कब्जे को गैरकानूनी ठहराया, तब से लेकर अब तक भारत ने लगातार मॉरीशस के दावे का समर्थन किया। चाहे वह संयुक्त राष्ट्र महासभा में हो, या हिंद महासागर के देशों के समूहों में भारत ने हर स्तर पर यह स्पष्ट किया कि चागोस मॉरीशस का अभिन्न अंग है और इसकी वापसी केवल समय की बात है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस पूरे मामले को केवल एक सहयोगी देश की मदद के रूप में नहीं देखा, बल्कि इसे ‘ग्लोबल साउथ’ यानी वैश्विक दक्षिण के देशों की आवाज़ को मजबूत करने और औपनिवेशिक इतिहास के खिलाफ एक नैतिक पहल के रूप में लिया। यही कारण है कि इस पूरे घटनाक्रम में भारत की भूमिका तो रही, लेकिन प्रचार या राजनीतिक लाभ की कोई होड़ नहीं देखी गई। भारत ने न तो कोई बड़ा आधिकारिक बयान जारी किया और न ही इसे अपनी कूटनीतिक जीत के तौर पर पेश किया। लेकिन मॉरीशस ने इस सहयोग को पूरे दिल से स्वीकारा और खुले तौर पर प्रधानमंत्री मोदी का नाम लेकर धन्यवाद दिया।

मॉरीशस के प्रधानमंत्री नवीन रामगुलाम ने डिजिटल समारोह में कहा कि भारत की लगातार कूटनीतिक सहायता और भरोसे ने इस संघर्ष को मुकाम तक पहुंचाया। उनके अनुसार, चागोस की वापसी केवल भूभाग की वापसी नहीं, बल्कि आत्म-सम्मान की वापसी है  और इसमें भारत की भूमिका अमूल्य रही। भारत के विदेश मंत्रालय ने इस समझौते को ‘एक ऐतिहासिक समाधान’ करार दिया और कहा कि यह हिंद महासागर क्षेत्र में स्थायित्व, सहयोग और शांति के लिए मील का पत्थर साबित होगा।

इस समझौते के रास्ते में एक छोटा लेकिन संवेदनशील मोड़ भी आया, जब चागोस द्वीपसमूह की एक महिला नागरिक बर्ट्रिस पोंप  ने ब्रिटिश अदालत में याचिका दायर की कि यदि द्वीप मॉरीशस को सौंप दिए गए तो उन्हें वहां लौटने की अनुमति शायद न मिले। इस पर अदालत ने कुछ समय के लिए सौदे पर अस्थायी रोक लगा दी। लेकिन बाद में सुनवाई पूरी होने के बाद यह रोक हटा ली गई और समझौते पर अंततः हस्ताक्षर हो गए।

डिएगो गार्सिया द्वीप की बात करें तो यह अमेरिकी सेनाओं के लिए एक बेहद अहम ठिकाना है, खासकर अफगानिस्तान, ईरान और चीन की निगरानी के लिहाज़ से। इसलिए यह सौदा केवल ऐतिहासिक या भावनात्मक नहीं था, बल्कि इसमें रणनीतिक और सुरक्षा की भी कई परतें शामिल थीं। यही कारण है कि इसमें संतुलन साधना बेहद जरूरी था  और भारत ने इसमें बड़ी भूमिका निभाई।

यह सौदा ‘न्यू वर्ल्ड ऑर्डर’ यानी नए वैश्विक व्यवस्था की एक झलक भी देता है। आज जब पश्चिमी ताकतें अपने पुराने औपनिवेशिक पदचिह्नों को मिटा रही हैं, तब भारत जैसे देश सामने आकर न केवल साझेदारी निभा रहे हैं, बल्कि न्याय और नैतिक मूल्यों को केंद्र में रखकर अपनी भूमिका तय कर रहे हैं। यह केवल भूगोल का नहीं, वैश्विक मानसिकता का भी परिवर्तन है।

इस पूरे घटनाक्रम ने एक बार फिर यह सिद्ध कर दिया है कि न्याय भले देर से मिले, लेकिन वह संभव है  बशर्ते उसके लिए दृढ़ इच्छाशक्ति, निरंतर कूटनीतिक प्रयास और अंतरराष्ट्रीय सहयोग हो। चागोस की वापसी न केवल मॉरीशस की जीत है, बल्कि यह उन लाखों लोगों के लिए भी एक आशा की किरण है, जिनकी ज़मीनें, पहचान और अधिकार औपनिवेशिक साजिशों के चलते उनसे छीन लिए गए थे।

भारत के लिए यह एक अवसर भी है और एक जिम्मेदारी भी। अवसर इसलिए कि हिंद महासागर में उसका प्रभाव और अधिक स्थिर और स्वीकार्य हुआ है। जिम्मेदारी इसलिए कि अब जब भारत ‘ग्लोबल साउथ’ की आवाज बनना चाहता है, तो उसे आगे भी ऐसे ही मुद्दों पर न्याय और नैतिकता के पक्ष में खड़े रहना होगा  चाहे वह अफ्रीका के किसी छोटे देश की बात हो या दक्षिण एशिया के किसी द्वीप राष्ट्र की।

चागोस द्वीपसमूह की वापसी कोई साधारण घटना नहीं है। यह इतिहास का वह मोड़ है जहां उपनिवेशवाद का एक दरवाज़ा बंद हुआ और वैश्विक न्याय का एक नया अध्याय शुरू हुआ। इस जीत में भारत की भूमिका एक मौन लेकिन मजबूत नींव की तरह रही  और यह दिखाता है कि सच्ची कूटनीति हमेशा शोर नहीं मचाती, लेकिन इतिहास ज़रूर बदल देती है।      

डिस्क्लेमर

 खबर से सम्बंधित समस्त जानकारी और साक्ष्य ऑथर/पत्रकार/संवाददाता की जिम्मेदारी हैं. खबर से इंडियामिक्स मीडिया नेटवर्क सहमत हो ये जरुरी नही है. आपत्ति या सुझाव के लिए ईमेल करे : editor@indiamix.in

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