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Reading: हिन्दी पत्रकारिता दिवस पर विशेष : पत्रकारिता के पतन के बीच उम्मीद की किरण भी
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INDIAMIX > देश > हिन्दी पत्रकारिता दिवस पर विशेष : पत्रकारिता के पतन के बीच उम्मीद की किरण भी
देश

हिन्दी पत्रकारिता दिवस पर विशेष : पत्रकारिता के पतन के बीच उम्मीद की किरण भी

Special on Hindi Journalism Day: A ray of hope amidst the decline of journalism

अजय कुमार
Last updated: 29/05/2025 5:33 PM
By
अजय कुमार
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7 Min Read
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A ray of hope amidst the decline of journalism

न्यूज़ डेस्क/इंडियामिक्स पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। इसका प्रमुख उद्देश्य होता है समाज को सही, निष्पक्ष और सत्य सूचना देना, ताकि नागरिक अपनी राय बना सकें और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भाग ले सकें। विशेष रूप से हिन्दी पत्रकारिता ने आज़ादी की लड़ाई से लेकर सामाजिक आंदोलनों तक में अहम भूमिका निभाई है। लेकिन वर्तमान समय में हिन्दी पत्रकारिता जिस रास्ते पर चल रही है, उससे यह सवाल उठना स्वाभाविक है दृ क्या पत्रकारिता अब नैतिकता से दूर हो गई है? क्या वह अब जनसेवा से अधिक व्यवसाय बन चुकी है? इस विश्लेषण में हम हिन्दी पत्रकारिता के नैतिक पतन के कारणों और उसके सामाजिक प्रभावों की गहराई से समीक्षा करेंगे।

Contents
  • व्यवसायीकरण और कॉर्पोरेट दबाव
  • पेड न्यूज़ और खबरों की दलाली
  • टीआरपी और क्लिकबेट की होड़’
  • पत्रकारों की सामाजिक और पेशेवर असुरक्षा
  • राजनीतिक पक्षधरता
  • जनता का विश्वास खोना
  • वास्तविक मुद्दों से ध्यान भटकाना

हिन्दी पत्रकारिता की शुरुआत 1826 में ‘उदन्त मार्तण्ड’ नामक समाचार पत्र से हुई थी। उस दौर में पत्रकारिता एक मिशन थी दृ समाज सुधार, स्वतंत्रता संग्राम और जागरूकता फैलाने का माध्यम। बालमुकुन्द गुप्त, गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी जैसे पत्रकारों ने कलम को हथियार बनाया और जनता की आवाज़ बने। उनका उद्देश्य सत्य की खोज और समाज के प्रति उत्तरदायित्व था। लेकिन आज हिन्दी पत्रकारिता जिस दिशा में जा रही है, वह चिंताजनक है। अब पत्रकारिता का मकसद खबर देना नहीं, खबर ’बेचना’ हो गया है। हिन्दी पत्रकारिता में नैतिक मूल्यों की गिरावट के कारणों को बिन्दुवार समझना जरूरी है।

व्यवसायीकरण और कॉर्पोरेट दबाव

मीडिया हाउस अब स्वतंत्र संस्थाएं नहीं रह गए हैं। अधिकांश बड़े हिन्दी अखबार और न्यूज़ चौनल बड़े कॉर्पाेरेट घरानों के अधीन हैं। इनका प्रमुख उद्देश्य मुनाफा कमाना है, न कि सामाजिक जागरूकता फैलाना। जब संपादकीय नीति विज्ञापनदाताओं और राजनीतिक समर्थकों के इशारे पर तय होती है, तो निष्पक्षता और ईमानदारी स्वाभाविक रूप से प्रभावित होती है।

पेड न्यूज़ और खबरों की दलाली

आज “पेड न्यूज़” एक गंभीर समस्या बन चुकी है। राजनीतिक दलों, उद्योगपतियों और अन्य हित समूहों द्वारा पत्रकारों और मीडिया संस्थानों को पैसे देकर अपने पक्ष में खबरें छपवाना एक आम प्रथा बन गई है। इससे पत्रकारिता की विश्वसनीयता को भारी नुकसान पहुँचा है।

टीआरपी और क्लिकबेट की होड़’

टीवी चौनलों पर टीआरपी की होड़ और डिजिटल मीडिया में क्लिकबेट हेडलाइनों ने पत्रकारिता को सतही बना दिया है। गहराई वाली, शोधपरक खबरों की जगह अब सनसनीखेज, उत्तेजक और भावनात्मक सामग्री परोसने का चलन है। इससे जनता को सच्चाई नहीं, बल्कि भ्रमित करने वाली सूचनाएं मिलती हैं।

पत्रकारों की सामाजिक और पेशेवर असुरक्षा

कई पत्रकार न्यून वेतन पर कार्य करते हैं, उनके पास सुरक्षा, प्रशिक्षण और संसाधनों की कमी होती है। ऐसे में जब उन पर दबाव आता है या रिश्वत का प्रलोभन दिया जाता है, तो नैतिकता से समझौता करना आसान हो जाता है। इस असुरक्षा का फायदा बड़े संस्थान और राजनैतिक ताकतें उठाते हैं।

राजनीतिक पक्षधरता

हिन्दी मीडिया का एक बड़ा हिस्सा अब खुलकर किसी न किसी राजनीतिक विचारधारा या पार्टी के पक्ष में खड़ा दिखाई देता है। निष्पक्ष रिपोर्टिंग की बजाय ‘नैरेटिव सेट करना’ अब पत्रकारों का काम बन गया है। इससे खबरें विचारधारा आधारित प्रचार में बदल जाती हैं। नैतिक मूल्यों की अनदेखी के दुष्परिणाम बहुत भयावह नजर आ रहा है,जिसकी तह में जाया जाये तो निम्न वजह सामने आती हैं।

जनता का विश्वास खोना

जब पत्रकारिता पक्षपातपूर्ण, झूठी या अधूरी खबरें परोसती है, तो आम जनता का भरोसा मीडिया पर से उठने लगता है। इससे लोकतंत्र की बुनियाद कमजोर होती है क्योंकि जागरूक नागरिक ही सशक्त लोकतंत्र की नींव होते हैं। नैतिकता के अभाव में मीडिया प्लेटफ़ॉर्म अफवाहों, नफ़रत और धु्रवीकरण को बढ़ावा देते हैं। कई बार ऐसा देखा गया है कि धार्मिक या जातीय मुद्दों को जानबूझकर उकसाया गया, जिससे हिंसा और तनाव फैल गया।

वास्तविक मुद्दों से ध्यान भटकाना

नैतिक रूप से गिरा हुआ मीडिया जनहित के मुद्दों जैसे बेरोज़गारी, स्वास्थ्य, शिक्षा और पर्यावरण की बजाय टीआरपी लायक मसालों को प्राथमिकता देता है। इससे समाज की मूल समस्याएँ हाशिए पर चली जाती हैं।वहीं जब युवा पत्रकारिता को सिर्फ करियर या फेम के नजरिये से देखते हैं, और जब मीडिया संस्थान उन्हें नैतिकता की जगह कंटेंट मैनेजमेंट सिखाते हैं, तो एक पूरी पीढ़ी पत्रकारिता के असली उद्देश्य से भटक जाती है।

हिन्दी पत्रकारिता में कैसे सुधार लाकर उसको पुरानी विश्वसनीयता को लौटाया जा सकता है,इसकी बात की जाये तो यह कहा जा सकता है कि  आम नागरिकों को यह समझाने की ज़रूरत है कि मीडिया कैसे काम करता है, खबरों की जांच कैसे करें, और कौन-सी सूचनाएं भरोसेमंद हैं। इसके साथ ही एक ऐसा तंत्र होना चाहिए जो हिन्दी पत्रकारिता की स्वायत्त और निष्पक्ष निकाय, मीडिया की नैतिकता की निगरानी करे और उल्लंघन करने वालों को जवाबदेह बनाए। इसके साथ ही पत्रकारों को नैतिकता, शोध विधियों और कानूनी अधिकारों की शिक्षा दी जानी चाहिए। साथ ही उन्हें आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा भी दी जानी चाहिए। वहीं इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि यदि पाठक, दर्शक और श्रोता सतर्क रहेंगे, झूठी खबरों का विरोध करेंगे, और ईमानदार पत्रकारिता को प्रोत्साहित करेंगे, तो संस्थानों पर भी दबाव बनेगा।

 दरअसल, हिन्दी पत्रकारिता का नैतिक पतन एक गंभीर और बहुस्तरीय समस्या है। यह केवल मीडिया संस्थानों का नहीं, बल्कि पूरे समाज का प्रश्न है। जब पत्रकारिता अपने मूल उद्देश्य- सत्य की खोज, जनसेवा और सत्ता पर प्रश्न उठाने की प्रवृति  से विमुख हो जाती है, तो लोकतंत्र पर खतरा मंडराने लगता है। हालांकि, निराशा के बीच आशा की किरण भी है। आज भी कई स्वतंत्र और निष्ठावान पत्रकार सत्य के पक्ष में खड़े हैं। यदि समाज, संस्थाएं और नागरिक मिलकर नैतिक पत्रकारिता को पुनर्स्थापित करने का प्रयास करें, तो बदलाव संभव है।

डिस्क्लेमर

 खबर से सम्बंधित समस्त जानकारी और साक्ष्य ऑथर/पत्रकार/संवाददाता की जिम्मेदारी हैं. खबर से इंडियामिक्स मीडिया नेटवर्क सहमत हो ये जरुरी नही है. आपत्ति या सुझाव के लिए ईमेल करे : editor@indiamix.in

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Byअजय कुमार
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वरिष्ठ पत्रकार , इंडियामिक्स, लखनऊ, उत्तर प्रदेश
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मुकेश धभाई, संपादक, इंडियामिक्स

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