
न्यूज़ डेस्क/इंडियामिक्स उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के बकेवर थाना क्षेत्र के अंतर्गत ग्राम दादरपुर में घटित एक घटना ने धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक हलकों में उबाल ला दिया है। भागवत कथावाचक मुकुट मणि यादव और उनके सहयोगी संत सिंह यादव के साथ कथित रूप से की गई अभद्रता, मारपीट और जातिगत अपमान ने न केवल सनातन परंपरा की आत्मा को झकझोरा है, बल्कि समाज की उस मानसिकता को भी उजागर कर दिया है, जो आज भी जातीय श्रेष्ठता के भ्रम में जी रही है। मुकुट मणि यादव का आरोप है कि वह गांव में श्रीमद्भागवत कथा कहने पहुंचे थे, जहां आयोजकों में से कुछ लोगों ने उनकी जाति पूछी। जब यह सामने आया कि वे यादव समुदाय से हैं, तो उनके साथ न केवल कथा रुकवा दी गई, बल्कि उन्हें मंच से हटाकर गाली-गलौज की गई, उनकी चोटी काटी गई, सिर मुंडवा दिया गया और कथित तौर पर उन्हें महिला के सामने नाक रगड़वाकर माफी मांगने के लिए विवश किया गया। आरोपों के अनुसार, उनके चेहरे पर पेशाब तक डाला गया और हारमोनियम तोड़ दिया गया। यह घटना कैमरे में कैद हुई और जैसे ही वीडियो वायरल हुआ, प्रदेशभर में तीखी प्रतिक्रियाएं शुरू हो गईं।
समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने इस घटना को जातिगत वर्चस्व की पराकाष्ठा बताते हुए सत्तारूढ़ भाजपा पर तीखा हमला बोला। उन्होंने लखनऊ में प्रेस वार्ता करते हुए कहा कि अब कथा कहने के लिए जाति प्रमाणपत्र अनिवार्य हो गया है, तो योगी सरकार को इस पर कानून बना देना चाहिए। उन्होंने मुकुट मणि यादव और संत सिंह यादव को सम्मानित करते हुए 21-21 हजार रुपये की राशि भेंट की और पार्टी की ओर से 51-51 हजार रुपये देने की घोषणा की। उनका कहना था कि यह घटना भाजपा शासित प्रदेशों में PDA यानी पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक समाज के प्रति निरंतर अपमानजनक व्यवहार का उदाहरण है।लेकिन जैसे-जैसे राजनीतिक हलचल तेज हुई, यह मामला कई और मोड़ों पर जा पहुंचा। कथावाचकों के पक्ष में यादव महासभा, समाजवादी पार्टी और अन्य संगठन खड़े हो गए। वहीं दूसरी ओर, गांव की ही महिला रेनू तिवारी और उनके पति जयप्रकाश तिवारी सामने आए और कथावाचकों पर गंभीर आरोप लगाए। रेनू तिवारी का कहना है कि कथा के दौरान भोजन के समय कथावाचक ने उनकी अंगुली पकड़ने की कोशिश की, जिससे उन्हें असहजता हुई। उन्होंने तुरंत अपने पति को जानकारी दी और गांव के कुछ युवा आक्रोशित हो उठे। महिला पक्ष का दावा है कि कथावाचक ब्राह्मण बनकर गांव में पहुंचे थे और जब सच्चाई सामने आई, तो विवाद गहराया। आरोप लगाया गया कि कथावाचक ने फर्जी आधार कार्ड से अपनी जाति ब्राह्मण दर्शाई थी।
अब मामला एक नया मोड़ लेता दिख रहा है, जहां पीड़िता महिला की ओर से पुलिस में शिकायत दर्ज कराई गई है। पुलिस अधीक्षक बृजेश कुमार श्रीवास्तव ने दोनों पक्षों की बात सुनकर निष्पक्ष जांच का भरोसा दिलाया है। पुलिस ने अब तक चार लोगोंआशीष तिवारी, उत्तम अवस्थी, मनु दुबे और निक्की अवस्थी को गिरफ्तार किया है, जिन्होंने कथावाचकों से मारपीट की थी। हालांकि अब कथावाचकों के आधार कार्ड को लेकर भी सवाल उठने लगे हैं, जिसमें एक ही फोटो पर अलग-अलग नाम और जाति दर्ज हैं। यह तथ्य पुलिस की जांच को और जटिल बना रहा है।इस घटनाक्रम के बाद ब्राह्मण महासभा ने भी मोर्चा खोल दिया है। महासभा के प्रदेश अध्यक्ष अरुण दुबे ने कहा कि कथावाचक समाज को गुमराह कर ब्राह्मण बनकर कथा कर रहे थे। उन्होंने कहा कि किसी महिला के साथ यदि छेड़खानी हुई है, तो उस पर भी कार्रवाई होनी चाहिए। साथ ही चेतावनी दी कि यदि केवल एक पक्ष के आधार पर कार्रवाई की गई तो महासभा आंदोलन का रास्ता अख्तियार करेगी। उनका तर्क है कि कोई भी कथा कह सकता है, लेकिन कथा की आड़ में दुर्व्यवहार की अनुमति नहीं दी जा सकती।
इधर, समाजवादी पार्टी की ओर से आरोप लगाया जा रहा है कि यह पूरा घटनाक्रम एक साजिश है, ताकि कथावाचकों को झूठे आरोपों में फंसाकर जातीय गोलबंदी को तोड़ा जा सके। सपा इटावा जिला अध्यक्ष प्रदीप शाक्य का कहना है कि महिला की शिकायत विवाद के दो दिन बाद सामने आई, जब राजनीतिक दबाव बढ़ने लगा। उन्होंने यह भी सवाल उठाया कि क्या यादव हिंदू नहीं हैं? क्या उन्हें कथावाचक बनने का अधिकार नहीं? उन्होंने कहा कि यह सब कुछ PDA समाज को अपमानित करने की साजिश का हिस्सा है।यह पूरा विवाद अब धर्म और जाति के उस चौराहे पर आकर खड़ा हो गया है, जहां सनातन परंपरा के मूल विचारों की परख हो रही है। क्या कथा कहने का अधिकार केवल ब्राह्मणों को है? अगर हम शास्त्रों और धर्मग्रंथों की ओर देखें तो स्पष्ट होता है कि ऐसा कोई विधान नहीं है। स्वयं महर्षि वेदव्यास, जिनके नाम पर व्यास पीठ की परंपरा है, वर्णसंकर थे। उनके पिता महर्षि पाराशर और माता मत्स्यगंधा (सत्यवती) थीं, जो निषाद कन्या थीं। सूत जी, जो भागवत पुराण के मुख्य वाचक माने जाते हैं, वे भी वर्णसंकर थे। शबरी एक वनवासी भीलनी थीं, लेकिन श्रीराम ने उनके प्रेम को पूजा का सर्वोच्च रूप माना। व्याध गीता में एक शिकारी, एक ब्राह्मण सन्यासी को कर्मयोग का उपदेश देता है। प्रह्लाद दैत्यकुल में जन्मे थे, लेकिन उन्हें भक्तराज की उपाधि मिली। यह सभी उदाहरण इस बात का प्रमाण हैं कि सनातन धर्म में ज्ञान, भक्ति और साधना ही सर्वोपरि मानी गई है, जाति नहीं।
यदि मुकुट मणि यादव और संत सिंह यादव ने सच्चे श्रद्धा भाव से कथा कही, और उन्हें केवल जाति के नाम पर अपमानित किया गया, तो यह संपूर्ण सनातन परंपरा का अपमान है। लेकिन यदि महिला पर की गई अभद्रता के आरोप सही हैं, तो वह भी उतना ही निंदनीय है। ऐसे में न्याय तभी संभव होगा जब दोनों पक्षों की जांच निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके से हो।इस मामले ने यह भी दर्शाया है कि हमारी सामाजिक संरचना आज भी कितनी संवेदनहीन है। जब धर्म की बात आती है, तो हम पूजा-पाठ की आड़ में एक-दूसरे को नीचा दिखाने में लगे रहते हैं। यदि कथावाचक ने अपनी जाति छिपाई, तो यह गलत है, लेकिन यदि उन्हें जाति के नाम पर पीटा गया, नाक रगड़वाई गई, अपमानित किया गया, तो यह उससे भी बड़ा अपराध है। ऐसे व्यवहार से न केवल मानवता अपमानित होती है, बल्कि समाज की वह बुनियाद भी हिलती है, जिस पर भारत का बहुलतावादी ढांचा टिका है।
यह घटना राजनीतिक गलियारों में आगामी विधानसभा चुनावों से पहले जातीय समीकरणों को भी प्रभावित कर सकती है। समाजवादी पार्टी इसे ‘पिछड़े वर्ग पर अत्याचार’ के रूप में पेश कर रही है, जबकि भाजपा खेमे से जुड़े संगठन इसे ब्राह्मण विरोध के रूप में देख रहे हैं। यादव बनाम ब्राह्मण विमर्श को हवा देकर राजनीतिक दल अपने-अपने हित साधने में जुटे हैं, लेकिन इस संघर्ष में वह वास्तविक मुद्दा गुम होता जा रहा है समाज में समता, न्याय और धर्म के प्रति सम्मान।
इटावा की यह घटना किसी एक गांव या व्यक्ति की नहीं है, यह एक चेतावनी है कि यदि हम धर्म को जातियों में बांटते रहे, तो वह अपने वास्तविक स्वरूप को खो देगा। धर्म की आत्मा करुणा, ज्ञान और सेवा है और यदि कथा कहने वाला सूत हो या यादव, शबरी हो या व्यास उसकी मर्यादा तभी बची रह सकती है जब हम उस व्यक्ति के भाव को देखें, न कि उसके जाति-प्रमाणपत्र को।समाज को आज तय करना होगा कि वह किस दिशा में आगे बढ़ेगा उस दिशा में जहां ज्ञान, भक्ति और धर्म की स्वतंत्रता सबको है, या उस अंधेरे में जहां जाति के नाम पर व्यक्ति को अपमानित कर दिया जाता है। अगर हम आज भी यह न सोच पाए कि कोई कथा कहने वाला केवल इसलिए गलत नहीं है क्योंकि वह यादव है या ब्राह्मण नहीं है, तो हम सचमुच 21वीं सदी में नहीं, बल्कि वर्णव्यवस्था के पतनशील युग में जी रहे हैं।इटावा की यह घटना हमें सोचने को मजबूर करती है कि क्या अब भी धर्म एक जातिवादी अवधारणा है या एक सार्वभौमिक चेतना? क्या हम व्यास, वाल्मीकि, शबरी और प्रह्लाद के वंशज हैं या जातीय दंभ और सामाजिक घृणा के वाहक? इस सवाल का जवाब हमें मिलकर देना होगा और न्याय, समानता और संवैधानिक मूल्यों को सर्वोपरि मानकर देना होगा।