
न्यूज़ डेस्क/इंडियामिक्स राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले के संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्दों पर दिए गए बयान को लेकर कांग्रेस ने आरएसएस पर निशाना क्या साधा, भारतीय राजनीति में भूचाल ही आ गया। कांग्रेस ने तुरंत आरोप लगा दिया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और बीजेपी की सोच ही संविधान विरोधी है। कांग्रेस ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा, ‘ये बाबा साहेब के संविधान को खत्म करने की वो साजिश है, जो आरएसएस-बीजेपी हमेशा से रचती आई है।’ इससे पहले दत्तात्रेय होसबोले ने एक कार्यक्रम में कहा था कि समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्दों को आपातकाल के दौरान संविधान की प्रस्तावना में शामिल किया गया था और इन्हें प्रस्तावना में रहना चाहिए या नहीं, इस पर विचार किया जाना चाहिए। होसबाले के इस बयान के बाद इंडी गठबंधन के धड़े और बीजेपी आमने-सामने आ गई है। कांग्रेस तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के इस बदलाव का बचाव करने के लिए इंदिरा की जगह बाबा साहब के पीछे छिपकर भाजपा और संघ नेताओं के खिलाफ हमलावर है, वहीं बीजेपी इसे कांग्रेस की सांप्रदायिक सोच बताकर उस पर हमलावर है।
गौरतलब हो, भारत का संविधान, जो 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ, एक जीवंत और गतिशील दस्तावेज है। यह न केवल देश के शासन की नींव है, बल्कि समय के साथ समाज की बदलती जरूरतों को भी दर्शाता है। संविधान में समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता जैसे शब्दों का समावेश एक ऐसी राजनीतिक घटना है, जो कथित तौर पर भारतीय लोकतंत्र की प्रगतिशीलता और दूरदर्शिता को रेखांकित करती है। इस हकीकत से इंकार नहीं किया जा सकता है कि संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता की इंट्री न तो महात्मा गांधी, न ही बाबा साहब अंबेडकर की देन है, बल्कि इसकी बुनियाद भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री, इंदिरा गांधी थी।
15 अगस्त 1947 को देश आजाद होने के बाद 26 जनवरी 1950 में जब संविधान लागू हुआ, तो यह भारत को एक संप्रभु, लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में स्थापित करने वाला दस्तावेज था। डॉ. अंबेडकर के नेतृत्व में संविधान सभा ने इसे एक ऐसा ढांचा दिया, जो समानता, स्वतंत्रता और न्याय के सिद्धांतों पर आधारित था। महात्मा गांधी के विचारों ने भी संविधान की भावना को प्रभावित किया, खासकर सामाजिक न्याय और अहिंसा के क्षेत्र में। हालांकि, प्रारंभिक संविधान में समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष जैसे शब्द स्पष्ट रूप से शामिल नहीं थे। यह अनुपस्थिति न तो किसी कमी को दर्शाती थी, न ही किसी विचारधारा की अनदेखी को। यह उस समय की परिस्थितियों का परिणाम था, जब संविधान को एक व्यापक और लचीला दस्तावेज बनाने की जरूरत थी।
1966 में, जब इंदिरा गांधी भारत की प्रधानमंत्री बनीं, देश एक नाजुक दौर से गुजर रहा था। आजादी के बाद के दशकों में भारत ने आर्थिक और सामाजिक चुनौतियों का सामना किया। गरीबी, असमानता और सामाजिक भेदभाव जैसे मुद्दे देश के सामने थे। इंदिरा ने इन समस्याओं को देखा और महसूस किया कि भारत को एक ऐसी दिशा की जरूरत है, जो न केवल आर्थिक प्रगति सुनिश्चित करे, बल्कि सामाजिक न्याय और समानता को भी बढ़ावा दे। इसके साथ ही, भारत की बहुधार्मिक और बहुसांस्कृतिक पहचान को मजबूत करने की आवश्यकता थी, ताकि सभी धर्मों और समुदायों के बीच सामंजस्य बना रहे।
इंदिरा गांधी का नेतृत्व साहस और दूरदर्शिता से भरा था। उन्होंने गरीबी हटाओ जैसे नारे दिए, जो समाजवादी विचारधारा का प्रतीक बन गए। उनका मानना था कि भारत का विकास तभी संभव है, जब समाज के सबसे कमजोर वर्ग को मुख्यधारा में लाया जाए। लेकिन यह केवल नारों तक सीमित नहीं था। इंदिरा ने इसे संवैधानिक स्तर पर स्थापित करने का निर्णय लिया।
1976 में, इंदिरा गांधी के नेतृत्व में भारत के संविधान में 42वां संशोधन पारित हुआ। यह संशोधन भारतीय संविधान के इतिहास में सबसे व्यापक और महत्वपूर्ण संशोधनों में से एक था। इस संशोधन के माध्यम से संविधान की प्रस्तावना में दो महत्वपूर्ण शब्द जोड़े गए समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष। इसके साथ ही, भारत को अब संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में परिभाषित किया। समाजवादी शब्द का समावेश इंदिरा गांधी के उस दृष्टिकोण को दर्शाता था, जिसमें आर्थिक और सामाजिक समानता सर्वोपरि थी। यह समाजवाद मार्क्सवादी या साम्यवादी विचारधारा से अलग था। यह भारतीय संदर्भ में समाजवाद था, जो लोकतंत्र के साथ सामंजस्य बिठाता था। इसका उद्देश्य था कि संसाधनों का वितरण इस तरह हो कि समाज का हर वर्ग, विशेष रूप से गरीब और वंचित, इसका लाभ उठा सके। इंदिरा के नेतृत्व में बैंकों का राष्ट्रीयकरण, जमींदारी उन्मूलन और ग्रामीण विकास योजनाएं इस समाजवादी दृष्टिकोण का हिस्सा थीं। संविधान में इस शब्द को जोड़कर उन्होंने इसे एक स्थायी और संवैधानिक आधार दिया।
विरोध की जड़ें कई स्तरों पर हैं। कुछ लोग मानते हैं कि बाबा साहब ने संविधान बनाते समय समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को स्पष्ट रूप से प्रस्तावना में शामिल नहीं किया, क्योंकि वे चाहते थे कि संविधान तटस्थ रहे। उनके लिए संविधान सामाजिक और आर्थिक बदलाव का उपकरण था, न कि किसी विचारधारा का प्रचारक। आलोचकों का कहना है कि इंदिरा गांधी ने इन शब्दों को जोड़कर अपनी सरकार की समाजवादी नीतियों को संवैधानिक समर्थन देने की कोशिश की, जो आपातकाल जैसे अलोकतांत्रिक कदमों के साथ विरोधाभासी थी।
धर्मनिरपेक्षता को लेकर भी सवाल उठे। भारत में धर्मनिरपेक्षता का मतलब ‘सर्वधर्म समभाव’ रहा है, लेकिन कुछ लोग इसे पश्चिमी ‘सेक्युलरिज्म’ से जोड़कर देखते हैं, जो धर्म को सार्वजनिक जीवन से अलग करता है। हिंदू राष्ट्रवादी समूहों का मानना है कि यह शब्द बहुसंख्यक हिंदू संस्कृति को कमजोर करता है। दूसरी ओर, अल्पसंख्यक समुदाय इसे अपनी सुरक्षा का आधार मानते हैं। इस तरह, धर्मनिरपेक्षता एक ध्रुवीकृत मुद्दा बन गया।
समाजवाद पर भी बहस जारी है। कुछ लोग इसे आर्थिक सुधारों के खिलाफ मानते हैं, जो 1991 में शुरू हुए। वे कहते हैं कि समाजवाद का शब्द अब प्रासंगिक नहीं, क्योंकि भारत ने बाजार अर्थव्यवस्था को अपनाया है। दूसरी ओर, समाजवादी विचारकों का कहना है कि यह शब्द संविधान को सामाजिक न्याय का दिशा-निर्देश देता है। आज, जब लोग इन शब्दों का विरोध करते हैं, तो वे इंदिरा गांधी की मंशा पर सवाल उठाते हैं। क्या यह वास्तव में देशहित में था या सत्ता को मजबूत करने की रणनीति? बाबा साहब का संविधान समावेशी था, लेकिन क्या इन शब्दों ने उसकी मूल भावना को बदला? यह बहस भारत के भविष्य को भी प्रभावित करती है, क्योंकि यह तय करती है कि हमारा संविधान किस विचारधारा को अपनाएगा।
धर्मनिरपेक्षता एकता का आधार धर्मनिरपेक्ष शब्द का समावेश भारत की बहुधार्मिक और बहुसांस्कृतिक पहचान को मजबूत करने का एक प्रयास था। भारत में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि राज्य किसी भी धर्म को विशेष दर्जा नहीं देता और सभी धर्मों के प्रति समान व्यवहार करता है। यह शब्द संविधान में जोड़कर इंदिरा ने यह सुनिश्चित किया कि भारत की एकता और अखंडता को कोई धार्मिक या सांप्रदायिक शक्ति कमजोर न कर सके। यह विशेष रूप से उस समय महत्वपूर्ण था, जब सामाजिक और सांप्रदायिक तनाव देश के लिए चुनौती बन रहे थे। 42वां संशोधन और इंदिरा गांधी के इस कदम की आलोचना भी हुई। कुछ लोगों का मानना था कि यह संशोधन आपातकाल के दौरान लागू किया गया, जो लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ था।