भारत, वो देश जहाँ के नैतिक व्यवहार व सामाजिक व्यवस्था ऐसे जीवन-मूल्यों को धारण करने का आग्रह करते हैं जो मानवता के उच्चतम आदर्श है। फिर भी गाहे-बगाहे महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अत्याचार भारत की सामाजिक व्यवस्था को, उसके आदर्शों को आइना दिखाते हैं। कुछ घटनाओं की जघन्यता तो भारत की आत्मा को भी झकझोरती है, लोग नाराज़ होतें हैं। धरना, प्रदर्शन, सोशल मीडिया पर विरोध जारी कर सरकार को कोसते हैं। समाज और जाति की राजनीति करने वाले लोग अपनी रोटियाँ सेकतें हैं, मीडिया भी कुछ दिन आंसू बहाता है। लेकिन फिर भी अपराध नहीं रुकतें, इस पर कोई बात नहीं करता ? इस लेख में हम इस सवाल का जवाब खोजेंगे।

संपादकीय / इंडियामिक्स न्यूज़ आज फिर हाथरस प्रकरण के बहाने देश में महिला सुरक्षा को लेकर बहस छिड़ी है। राजनीति करने वाले राजनीति कर रहें हैं। कोई प्रकरण को जाति से जोड़ रहा है, कोई इसको राज्य व केंद्र सरकार की नाकामी से जोड़ रहा है तो कोई आंकड़ों की बरसात कर कर सरकार से सवाल कर रहा है। लेकिन कोई यह क्यों नहीं सोच रहा है कि आखिर यह प्रकरण होते क्यों हैं ?
दिल्ली का प्रसिद्ध निर्भया मामला जो भारत के लिये वैश्विक शर्म का प्रतीक बना था के समय भी मीडिया व राजनीति के एक बड़े हिस्से में ऐसा ही आक्रोश देखने को मिला। समाज भी आंदोलित और उद्वेलित दिखा था। जिसकी वजह से सरकारें सख्त हुई, तब से लेकर आज तक के केंद्रीय नेतृत्व ने महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराधों को रोकने के लिये लगातार क़ानूनों को कड़ा किया। आज पोक्सो एक्ट व अन्य कानून अपनी कठोरता के उच्च स्तर पर है, लेकिन अपराधों की संख्या में कमी नहीं हो रही है, हम इस विषय पर बात क्यों नहीं करतें ?
जब भी कोई ऐसा अपराध होता है तो हमारी मीडिया, राजनीति व समाजशास्त्री सबसे पहले इसमें जाति, धर्म आदि विभिन्न दृष्टिकोण ढूंढते हैं, उसके बाद उस घटना के राजनीतिक महत्व के आधार पर उसको मीडिया आदि में महत्व दिया जाता है। ऐसा नहीं है कि पिछले दिनों मात्र हाथरस में ही ऐसा जघन्य अपराध हुआ। ऐसे ही जघन्य अपराध उप्र के बलरामपुर, राजस्थान के बारां, मप्र के खरगौन आदि कई जगहों पर दर्ज हुये, लेकिन इनकी चर्चा नहीं हुई। क्या इन अपराधों की प्रकृति कम गम्भीर हैं ? नहीं ऐसा नहीं है। बल्कि इन अपराधों में राजनीति व TRP का मसाला कम है।
हमारा मीडिया व राजनीति इन मामलों को जिस प्रकार से उठातें है, वही से इन मामलों के बाद किसी निष्कर्ष पर पहुचने की संभावना कम हो जाती है। मीडिया व राजनीति जब तक महिला अपराधों को अलग-अलग दृष्टि से देखेगा तब तक इस क्षेत्र में सुधार होना असम्भव है। ऐसा अपराध देश के किसी भी हिस्से में हो, किसी भी जाति-समुदाय के साथ हो, किसी भी जाति-समुदाय ने किया हो उसकी गंभीरता की प्रकृति समान ही है। इन अपराधों को जब तक मीडिया व राजनीति द्वारा समाजिक रूप से एक ही दृष्टि से नहीं देखा जायेगा तब तक आप ऐसे मामलों में सुधार की बड़ी उम्मीद नहीं कर सकतें।
जब तक हमारा मीडिया व हमारे राजनीतिक दल, ऐसे मामलों में सरकार के साथ समाज को भी बराबर दोषी नहीं मानेंगे, समाज से कड़े प्रश्न नहीं करेगें, जागरूकता के लिये आह्वाहन नहीं करेंगे, तब तक बदलाव होना मुश्किल है। ये अपराध परिस्थिति पर निर्भर होने के साथ अपराधी की प्रकृति, उसकी सोच, व्यवहार तथा उसके व्यक्तित्व पर अधिक निर्भर होतें हैं। जिनपर सरकार का नहीं बल्कि समाज व परिवार का नियंत्रण तथा प्रभाव होता है। ऐसे में इन अपराधों के लिये मीडिया जब तक समाज को कटघरे में खड़ा नहीं करेगी तब तक आप बदलाव की उम्मीद नहीं लगा सकतें। राजनितिक दल अन्य मुद्दों की तरह महिला सुरक्षा के लिए जनता से भी प्रश्न करें, उसे जागरूक करें, एक आदर्श समाज में महिला सुरक्षा का क्या स्थान है इसका प्रतिपादन जनता के समक्ष करें तब इस विषय पर समाज की सोच में व्यापक सकारात्मक परिवर्तन हो सकता है. महिला सुरक्षा के प्रति समाज में जिस दिन जिम्मेदारी की भावना का निर्माण होगा, उस दिन हम इस विषय पर सकारात्मक बदलाव की ओर अग्रसर होंगे।
हमारे बड़े बुजुर्ग बताते है कि उनके जमाने में महिलाओं की सुरक्षा का बड़ा महत्व था, स्त्री को परिवार के साथ गांव व समाज के सम्मान का विषय माना जाता था। गांव की बेटी के सम्मान की रक्षा की जिम्मेदारी सबकी होती थी लेकिन आज ऐसा नहीं है। हम किस समाजिक बदलाव की ओर जा रहें हैं। हमें इसके बारे में सोचना चाहिये। महिलाओं को सुरक्षा देना सरकार का काम है यह ठीक है लेकिन यह समाज की भी जिम्मेदारी है कि वो अपनी औरतों को महफूज रखें। आज का समाज भी तेजी से बदल रहा है, हजारों डेटिंग एप्प, सेंसुअल वेबसिरिज, हजारों पोर्न साइट्स की भरमार व नई पीढ़ी पर कम होते समाजिक अंकुश के कारण पनपती यौन स्वछंदता, समाज को गलत दिशा में ले जा रही है। इससे यौन कुंठा का जन्म होता है, जो इन अपराधों का एक प्रमुख कारण है। समाजिक रूप से जब हम मजबूत होंगे, हमारा समाज सद नैतिक मूल्यों के साथ रहेगा तभी हम इन अपराधों को रोक पायेंगे।
वर्तमान समय में सबसे जरूरी है महिला अपराधों पर बात हो, मीडिया तथा हमारे समाज के बड़े हिस्से, सोशल मीडिया आदि पर इस विषय पर चर्चा हो। राजनीतिक व कथित जातीय, सम्प्रदायिक कारणों जैसे चोचले को छोड़, इन घटनाओं के पीछे के वास्तविक कारणों पर चर्चा हो। समाज अपना अनुशीलन करें। मीडिया समाज को जागरूक करें। तब जाकर हम इन घटनाओं में कमी लाने की ओर अग्रसर हो सकतें हैं। हमें यह सोचना चाहिए की बढती शिक्षा, साक्षरता, वैज्ञानिकता व तकनिकी के बाद भी, आज के भारत में शिक्षा व भारतीयों के रहन-सहन का स्तर बढ़ने के बाद भी, इस नए भारत के नए बनते समाज में महिला असुरक्षित क्यों ? जब तक एक समाज के रूप में हम अपना आत्मावलोकन नहीं करेंगे, अपनी गलतियों को ठीक नहीं करेंगे, तब तक सरकार लाख प्रयास कर ले कुछ नहीं कर पायेगी। महिला सुरक्षा, सामाजिक सुरक्षा का विषय है, जो समाज ही दे सकता है, प्रत्येक भारतीय इस सामाजिक जिम्मेदारी को निभाकर महिलाओं के लिए सुरक्षित माहौल का निर्माण कर सकता है। इसके लिए आवश्यकता है समाज के जागने की, जिसके लिए हमारे राजनितिक दलों, मिडिया, पत्रकारों, अध्यापकों व सोशल मिडिया इन्फ्ल्युएन्सर्स आदि को मिल कर साझा प्रयास करने होंगे।
सरकार, विशेषकर केंद्र को भी इसके लिये प्रयास करना चाहिये, अपने जनसम्पर्क व संस्कृति विभाग के माध्यम से समाज को जागरूक करने का प्रयास करना चाहिये। समाजशास्त्री, मनोवैज्ञानिक व शिक्षाविदों के साथ बैठकर लगभग हाईस्कूल से नैतिक व यौन शिक्षा को शामिल करने पर मनन करना चाहिये। विभिन्न समाजिक संगठनों के साथ मिल कर टॉक शो, जागरूकता कार्यक्रम आदि करने चाहिये। हर समाजिक मुद्दे पर अपनी मुखर राय रखने के लिये जाने जाने वाले हमारे प्रधानमंत्री महोदय को भी महिला सुरक्षा के मुद्दे पर बोलना चाहिये। सबसे जरूरी हमारे समाज को आगे आकर अपना उत्तरदायित्व निभाना चाहिये। हम अपने घर से महिला का सम्मान करना प्रारम्भ करेंगे तब गांव, जिला, राज्य व देश की बेटी सुरक्षित हो पायेगा। बेटी की सुरक्षा जिस दिन भारतीय समाज के अभिमान व व्यवहार से जुड़ जायेगी उस दिन इस समस्या का स्वतः समाधान हो जायेगा।