
न्यूज़ डेस्क/इंडियामिक्स उत्तर प्रदेश की सियासत में दो विचारधाराएँ आमने-सामने हैं। एक तरफ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का हिंदुत्व का नारा, जो धार्मिक एकजुटता और सांस्कृतिक गौरव के बल पर वोटरों को लुभाने की कोशिश करता है। दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी (सपा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव की पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) रणनीति, जो सामाजिक न्याय और समावेशी राजनीति की बुनियाद पर टिकी है। 2024 के लोकसभा चुनाव में सपा-कांग्रेस गठबंधन ने बीजेपी को कड़ी टक्कर दी, जिसने 80 सीटों वाले उत्तर प्रदेश में बीजेपी को 33 और सपा को 37 सीटों तक सीमित कर दिया। यह नतीजा अखिलेश की पीडीए रणनीति की ताकत को दर्शाता है, लेकिन 2027 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के हिंदुत्व के सामने यह कितना टिक पाएगी, यह एक बड़ा सवाल है।
अखिलेश यादव ने 2023 में पीडीए का नारा दिया था, जिसका मतलब है पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक। यह रणनीति सपा के पारंपरिक मुस्लिम-यादव (एम-वाई) वोट बैंक को विस्तार देने की कोशिश थी। सपा ने हमेशा यादव और मुस्लिम समुदायों पर निर्भरता दिखाई, लेकिन अखिलेश ने गैर-यादव ओबीसी, दलित और अन्य अल्पसंख्यकों को जोड़ने की रणनीति अपनाई। 2024 के चुनाव में सपा ने 62 सीटों पर उम्मीदवार उतारे, जिनमें केवल पाँच यादव थे, और बाकी टिकट गैर-यादव ओबीसी (27), दलित (15), और ऊपरी जातियों (11) को दिए गए। इस रणनीति ने सपा को बुंदेलखंड, अवध और पूर्वांचल जैसे क्षेत्रों में जीत दिलाई, जहाँ उसने बीजेपी को कड़ी चुनौती दी। सपा ने कुर्मी, शाक्य, मौर्य, पाल और निषाद जैसी जातियों को टिकट देकर सामाजिक गणित को अपने पक्ष में किया।
अखिलेश की पीडीए रणनीति का आधार सामाजिक न्याय और आर्थिक मुद्दों पर केंद्रित है। उन्होंने बेरोजगारी, महंगाई, और सरकारी भर्तियों में पेपर लीक जैसे मुद्दों को उठाकर युवाओं और ग्रामीण वोटरों को लुभाया। इसके अलावा, उन्होंने संविधान और आरक्षण की रक्षा का मुद्दा जोर-शोर से उठाया, खासकर दलित और ओबीसी समुदायों के बीच। सपा ने बीजेपी पर संविधान बदलने और आरक्षण खत्म करने का आरोप लगाया, जिसने दलित और पिछड़े वोटरों में डर पैदा किया। अखिलेश ने जुड़ेंगे तो जीतेंगे का नारा दिया, जो बीजेपी के बटेंगे तो कटेंगे के जवाब में था। यह नारा एकता और सामाजिक न्याय की भावना को दर्शाता है, जिसने 2024 में सपा को इंडिया गठबंधन के साथ 43 सीटें जिताने में मदद की।
वहीं, बीजेपी हिंदुत्व की सियासत कर रही है। राम मंदिर का निर्माण, जिसे बीजेपी ने अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि बताया, वह 2024 के चुनाव में वैसा जादू नहीं दिखा सका, जैसा पार्टी ने उम्मीद की थी। अयोध्या में ही बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा, जब सपा के अवधेश प्रसाद ने फैजाबाद सीट जीती। बीजेपी ने हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण की कोशिश की, जिसमें मुस्लिमों को आरक्षण देने के कथित विपक्षी प्लान का मुद्दा उठाया गया। लेकिन यह रणनीति उलटी पड़ गई, क्योंकि गैर-यादव ओबीसी और दलित मतदाताओं ने सपा-कांग्रेस गठबंधन को समर्थन दिया।
बीजेपी ने 2014 और 2019 में हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के बल पर उत्तर प्रदेश में भारी जीत हासिल की थी, लेकिन 2024 में उसका वोट शेयर 33.6ः तक सिमट गया।
हालांकि, बीजेपी की हिंदुत्व की राजनीति को पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता। योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में बीजेपी ने कानून-व्यवस्था और हिंदू गौरव जैसे मुद्दों को जोर-शोर से उठाया। योगी ने श्बटेंगे तो कटेंगेश् जैसे नारों के जरिए हिंदू एकता की बात की, जो ऊपरी जातियों और कुछ ओबीसी समुदायों में प्रभावी रही। बीजेपी ने अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) को लुभाने के लिए भी प्रयास किए, जैसे निषाद, कुर्मी और मौर्य समुदायों को टिकट देना। 2017 और 2022 के विधानसभा चुनाव में इस रणनीति ने बीजेपी को भारी सफलता दिलाई थी। लेकिन 2024 में सपा की पीडीए रणनीति ने इन समुदायों में सेंध लगाई, खासकर कुर्मी और दलित वोटरों में।
अखिलेश ने हाल के दिनों में हिंदुत्व के मैदान में भी कदम रखा है। इटावा में केदारेश्वर महादेव मंदिर का निर्माण इसका उदाहरण है। यह मंदिर न केवल धार्मिक महत्व रखता है, बल्कि बीजेपी के श्सपा मुस्लिम तुष्टिकरण करती हैश् के आरोप का जवाब भी है। सपा नेताओं का कहना है कि उनकी पार्टी सच्चे हिंदुत्व को बढ़ावा देती है, जो गंगा-जमुनी तहजीब और समावेशिता पर आधारित है। लेकिन बीजेपी इसे श्राजनीतिक अवसरवादश् करार देती है और दावा करती है कि सपा का पीडीए वास्तव में केवल यादवों तक सीमित है।
2027 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश की पीडीए रणनीति की असली परीक्षा होगी। सपा ने 2024 में गैर-यादव ओबीसी और दलितों को अपने साथ जोड़ा, लेकिन इस गठजोड़ को बनाए रखना आसान नहीं होगा। बीजेपी ने अपनी हार से सबक लिया है और अब वह हिंदुत्व के साथ-साथ सामाजिक गठजोड़ को मजबूत करने की कोशिश कर रही है। योगी आदित्यनाथ ने उप चुनाव में सक्रियता बढ़ाई है, और बीजेपी ने दलित और ओबीसी नेताओं को आगे लाने की रणनीति बनाई है। मील्कीपुर जैसे उप चुाव में बीजेपी ने पासी उम्मीदवार उतारकर सपा की पीडीए रणनीति को चुनौती दी।
सपा के सामने चुनौती है कि वह अपने पीडीए गठजोड़ को संगठित रखे। दलित वोटर, जो पहले बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के साथ थे, अब सपा की ओर झुके हैं, क्योंकि बसपा का प्रभाव कम हुआ है। लेकिन बीजेपी और बसपा दोनों ही इस वोट बैंक को वापस लाने की कोशिश करेंगे। इसके अलावा, सपा को इंडिया गठबंधन के सहयोगियों, खासकर कांग्रेस, के साथ तालमेल बनाए रखना होगा। 2024 में सपा-कांग्रेस गठबंधन ने अच्छा प्रदर्शन किया, लेकिन गठबंधन में सीट बंटवारे और नेतृत्व को लेकर तनाव की आशंका बनी रहती है।
दूसरी तरफ, बीजेपी के पास संगठनात्मक ताकत और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का समर्थन है। वह हिंदुत्व के मुद्दों को और तेज कर सकती है, खासकर अगर 2027 से पहले कोई बड़ा धार्मिक या सांस्कृतिक मुद्दा उभरता है। योगी आदित्यनाथ की छवि एक कट्टर हिंदू नेता के रूप में बीजेपी को ऊपरी जातियों और कुछ ओबीसी समुदायों में मजबूती देती है। लेकिन बीजेपी को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि उसका हिंदुत्व का नारा गैर-यादव ओबीसी और दलित वोटरों को अलग न करे।
अखिलेश की पीडीए रणनीति ने 2024 में बीजेपी को कड़ी चुनौती दी, लेकिन इसका भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि सपा इस गठजोड़ को कितनी मजबूती से बनाए रखती है। दूसरी ओर, बीजेपी का हिंदुत्व अभी भी एक शक्तिशाली हथियार है, जो धार्मिक भावनाओं को भुनाने में माहिर है। 2027 का चुनाव इस बात का फैसला करेगा कि सामाजिक न्याय का नारा धार्मिक धु्रवीकरण के सामने कितना टिक पाता है।