यह लेख पाकिस्तान की राजनीति में सेना के हस्तक्षेप और देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर इसके प्रभाव के लंबे समय से चले आ रहे मुद्दे पर चर्चा करता है। लेख में राजनीति में सैन्य हस्तक्षेप के हालिया उदाहरणों पर प्रकाश डाला गया हैं, जैसे चुनाव में धांधली के आरोप और पूर्व प्रधान मंत्री नवाज़ शरीफ़ को अपदस्थ करना। लेख में तर्क दिया गया है कि सेना के हस्तक्षेप ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया में जनता के विश्वास को खत्म कर दिया है, नागरिक संस्थानों को कमजोर कर दिया है और भय और सेंसरशिप की संस्कृति को जन्म दिया है।

पाकिस्तान एक ऐसा देश है जो दशकों से राजनीतिक अस्थिरता से जूझ रहा है। इस अस्थिरता का एक मुख्य कारण पाकिस्तान की राजनीति में सेना का दखल रहा है। सेना का पाकिस्तान की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में दखल देने का एक लंबा इतिहास रहा है, जिसके परिणामस्वरूप सरकार में विश्वास की कमी और लोकतांत्रिक मानदंडों का क्षरण हुआ है। इस लेख में हम पाकिस्तान की मौजूदा स्थिति और उसकी राजनीति में सेना की भूमिका का पता लगाएंगे।
1947 में अपनी स्थापना के बाद से सेना ने पाकिस्तान की राजनीति में एक प्रमुख भूमिका निभाई है। देश ने सैन्य तख्तापलट की एक श्रृंखला का अनुभव किया है तथा ऐतिहासिक रूप से देश की सेना भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सरकार में शामिल रही है। राजनीति में सेना की भागीदारी ने अधिनायकवाद की संस्कृति का निर्माण किया है, जहाँ नागरिक संस्थाएँ कमजोर हैं और सेना के पास अधिकांश शक्ति है।
पाकिस्तान की मौजूदा स्थिति इससे अलग नहीं है। देश में 2018 से 2022 तक प्रधानमंत्री इमरान खान का शासन रहा, लेकिन लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सेना के दखल के आरोप लगते रहे हैं। सेना के दखल के कारण ही अप्रैल 2022 में इमरान खान को गद्दी छोड़नी पड़ी और आज उसपर नवाज शरीफ के भाई शाहबाज शरीफ बैठें हैं।
पाकिस्तान की राजनीति में सेना के दखल के सबसे उल्लेखनीय उदाहरणों में से एक 2018 के आम चुनाव हैं। इसमें विपक्षी दलों ने सेना पर इमरान खान की पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) पार्टी का समर्थन करने और उसके पक्ष में चुनाव में धांधली करने का आरोप लगाया था। विपक्षी दलों ने आरोप लगाया था कि सेना ने पीटीआई के पक्ष में परिणामों में हेरफेर करने के लिए चुनाव आयोग पर दबाव डाला था। हालांकि ये आरोप कभी साबित नहीं हुए, लेकिन इन्होने लोकतांत्रिक प्रक्रिया में जनता के विश्वास को और भी कम कर दिया।
राजनीति में सेना के हस्तक्षेप का एक और उदाहरण 2017 में पूर्व प्रधान मंत्री नवाज़ शरीफ़ का अपदस्थ होना था। पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय ने शरीफ़ को भ्रष्टाचार के आरोपों पर सार्वजनिक पद संभालने से अयोग्य घोषित कर दिया। हालांकि, कई लोगों का मानना है कि शरीफ को अपदस्थ करने में सेना ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। सेना 2013 में प्रधानमंत्री के रूप में अपने तीसरे कार्यकाल की शुरुआत में शरीफ के साथ तो थी लेकिन उनके और सेना के बीच बढ़ती दरार की खबरें भी थीं।
राजनीति में सेना के दखल के कारण मीडिया और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर भी कार्रवाई हुई है। सरकार पर मीडिया को सेंसर करने और असंतोष को दबाने का आरोप लगाया गया है, जिसके परिणामस्वरूप भय और आत्म-सेंसरशिप की संस्कृति पैदा हुई है। पाकिस्तान की राजनीति में सेना के हस्तक्षेप के परिणामस्वरूप लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास की कमी, कमजोर नागरिक संस्थाएं और लोकतांत्रिक मानदंडों का क्षरण हुआ है। चुनाव प्रक्रिया में सेना के हस्तक्षेप और असंतोष को दबाने के आरोपों के साथ, पाकिस्तान की मौजूदा स्थिति भी अलग नहीं है। पाकिस्तान को वास्तव में एक लोकतांत्रिक देश बनने के लिए, सेना को राजनीति से बाहर करना चाहिए और नागरिक संस्थानों को स्वतंत्र रूप से काम करने देना चाहिए।